गोवर्धन पर्वत मथुरा शहर के पास ही स्थित है और इस पर्वत का इतिहास श्री कृष्ण के समय से जुड़ा हुआ है। हर साल दीपावली के पर्व के अगले दिन गोवर्धन पर्वत की पूजा की जाती है।
ऐसा कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण के कहने पर ही गोकुल और वृंदावन के लोगों ने गोवर्धन पर्वत की पूजा करना शुरू किया था और तब से हर साल कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को गोवर्धन पर्व मनाया जाने लगा। इस पर्व के दौरान लोग घर के आगंन में गोवर्धन पर्वत बनाते हैं और इस पर्वत की पूजा करते हैं।
इस पर्वत से जुड़ी कथा के अनुसार पुलस्त्यजी ऋषि ने जब पहली बार इस पर्वत को देखा था, तो उन्हें ये पर्वत बेदह ही सुंदर लगा। पुलस्त्यजी ऋषि ने द्रोणाचल पर्वत से आग्रह किया कि वो अपने पुत्र गोवर्धन को उनके साथ काशी भेज दे। ताकि वो गोवर्धन पर्वत को काशी में स्थापित कर सकें और रोज इस पर्वत की पूजा कर सकें। द्रोणाचल पर्वत ने पुलस्त्यजी ऋषि की बात को स्वीकार नहीं किया। लेकिन गोवर्धन पर्वत पुलस्त्यजी ऋषि के साथ जाने के लिए राजी हो गया। हालांकि गोवर्धन पर्वत ने पुलस्त्यजी ऋषि के सामने एक शर्त रखी और उनसे कहा कि आप मुझे जहां रख देंगे, मैं वहां पर ही स्थापित हो जाऊंगा। पुलस्त्यजी ने गोवर्धन की इस शर्त को मान लिया।
पुलस्त्य ऋषि अपने हाथों पर इस पर्वत को उठाकर काशी ले जाने लगे तभी रास्त में गोर्वधन पर्वत को ब्रज भूमि दिखाई दी। ब्रज भूमि को देख गोवर्धन पर्वत ने सोचा की ये जगह तो भगवान श्रीकृष्ण की है और यहां पर वो बहुत सी लीलाएं करते हैं। अगर मैं यहीं पर स्थापित हो जाऊं तो मैं भगवान कृष्ण की उन सभी लीलाओं को देख सकूंगा। ये सोचकर गोवर्धन पर्वत ने अपना वजन बढ़ा लिया ताकि पुलस्त्य ऋषि उन्हें उठा ना सके। पर्वत के भारी होने पर पुलस्त्य ऋषि ने सोचा की वो पर्वत को ब्रज में रख दें और थोड़ा विश्राम कर ले। पुलस्त्य ऋषि इस बात को भूल गए कि गोवर्धन पर्वत को एक बार जहां रखा जाएगा वो वहीं स्थापित हो जाएगा।
कुछ देर आराम करने के बाद पुलस्त्य ऋषि जब गोवर्धन को उठाने लगे तो ये पर्वत नहीं उठा और इस पर्वत ने ऋषि से कहा कि मैंने आपसे पहले ही कहा था कि जहां आप मुझे रखेंगे, मैं वहां पर ही स्थापित हो जाऊंगा। गोवर्धन पर्वत अपनी जगह से नहीं हिला और तब ऋषि ने गुस्सा होकर इस पर्वत को श्राप दिया कि प्रतिदिन तिल-तिल कर तुम्हारा आकार कम हो जाएगा और तुम एक दिन धरती में समा जाओगे। इसी श्राप के चलते ये पर्वत धीरे-धीरे धरती में समा रहा है और कलियुग के अंत तक ये पर्वत धरती में पूरा तरह से समा जाएगा और खत्म हो जाएगा।
इंद्र देव के प्रकोप से वृंदावन वासियों को बचाने के लिए भगवान कृष्ण ने इसी पर्वत को अपनी छोटी उंगली से उठाया था और तीन दिनों तक इसे उठाए रखा था। तीन दिनों तक इंद्र देव द्वारा की गई भारी बारिश के दौरान इसी पर्वत के नीचे ही वृंदावन वासियों ने शरण ली थी।